आरती मनचंदा ग्रोवर
हाल ही में सामुदायिक रेडियो प्रशिक्षण कार्यक्रम में जाने के मौका मिला. बहुत कुछ सीखा और कईं बातें भूलने के मन भी किया. आखिर ऐसी कौन सी बातें हैं जिन्हें भूलने का मन किया? बात हो रही थी समानता और अधिकारों की और चर्चा हुई की किस तरह आज भी हमारे समाज में औरत का दर्जा पुरुष से नीचे है. हालाँकि यह बात कईं मायनों में बदल रही है, औरतें घर से बाहर निकल रही है, अपनी खुद की पहचान बना रही हैं पर क्या फिर भी क्या जो दिख रहा है वैसा ही हो रहा है? क्या हमारी सोच में कोई बदलाव आया? सारी बातें फिर सवाल बनकर सामने आ खड़ी हुई. रेडियो कार्यक्रम हो या हमारा दैनिक जीवन पित्रसत्तात्मक सोच हमारे दिलों दिमाग में इतनी धस चुकी है कि जाने अनजाने हम अपने कार्यों, ख्यालों और विचारों में इसी का प्रमाण देते हैं.
किसी भी ताकत वाले या सत्ता से जुड़े काम की बात आये तो सबसे पहली तस्वीर जो दिमाग में बनती है वह पुरुष की और जहाँ बात आए सहनशीलता और बेचारेपन की वहां एकाएक महिला आकर खड़ी हो जाती है. किसका बनाया हुआ है यह ढांचा, शायद चूक यह हुई की हमने कभी इसपर सवाल ही नहीं उठाया और साल दर साल, पीड़ी दर पीड़ी यही सोच आगे बढती गई. बड़ी ही तैयारी के साथ हमने इस सोच को सामाजिक नियमों, प्रथाओं, और सांस्कृतिक लोकाचार के रंगीले शब्दों से सजा दिया.
अगर हम किसी बदलाव की कल्पना करते हैं तो उसे सबसे पहले हमसे ही शुरू होना चाहिए. बचपन से बड़े होने तक हम इस लिंग आधारित भेदभाव को सुनते आए हैं और कब यह सुनी सुनाई बातें हमारी भी मानयता बन गयी पता ही नहीं चला, मानो दबे पाव हमारे ज़हन में घर कर लिया हो और हम कब इसे ही सच समझ बैठे पता ही नहीं चला. पर जब सीखने का मौका मिला और गहराई से चीज़ों को जाना तो पता चला की यह सब इस समाज के देन है, इसमें कुदरत का कोई हाथ नहीं. कुदरत ने तो भेद बनाया था पर हम सब उसे भेद भाव बना बैठे. खुद अपने अनुभव से कहूं तो इस भेदभाव पर सवाल उठाने का अब ज्यादा मन इसीलिए भी करता है क्यूंकि मैं एक दो साल की बच्ची की माँ हूँ. मैं नहीं चाहती की जिन मानयताओं के साथ मैं बड़ी हुई, उन्ही के साथ मेरी बेटी भी बड़ी हो. वो न ही अपनी सुरक्षा, अपने फैसले खुद ले सके, बल्कि हर सामाजिक भेदभाव पर सवाल उठाने में सक्षम हो क्यूंकि सवाल उठाने से ही संवाद शुरू होता है और आगे चलकर वही बदलाव की राह बनता है.
समाज हम सभी से है तो क्यूँ ना एक शुरुआत करके देखी जाए. उदहारण के लिए एक दम्पति का पहला लड़का हुआ और उन्होंने चाहा की वो अब और बच्चे नहीं चाहते, उनका यह निर्णय स्वीकार बनस्पत उनके जिनकी बेटी है. क्या एक बेटी के साथ परिवार पूरा नहीं? लड़के रोते नहीं या क्यूँ लड़कियों की तरह रो रहे हो, ऐसी बातें जो हम बचपन से सुनते हैं कहीं न कहीं हमारी सोच का हिस्सा बन जाती हैं और हम इंसानियत को पीछे छोड़ते हुए बस इस सोच के आगे नतमस्तक, इसी को सही ठहराने की कोशिश में कईं रिश्ते नातों को दाव पर लगा देते हैं.
एक न्यायिक समाज की रचना शुरू करने के लिए हम सब की भागीदारी की ज़रुरत है क्यूंकि बराबरी कभी तकलीफ नहीं लाती, लाती है तो सिर्फ सम्मान और सोहार्द. जैसे की कमला भसीन जी कहती हैं ताकत से मोहब्बत मत करो, मोहब्बत की ताकत को समझो. हम सब में जिस दिन प्यार की मर्दानगी आ गयी उस दिन राहें बहुत आसान हो जायेंगी.